➡ गीत - शंकर भोला भंडारी ➡ गायक - सुनील सिहोरे ➡ गीतकार - पूरन साहू // cgjaslyrics
हिन्दू पौराणिक ग्रंथों में, भगवान शिव का जन्म किसी एक निश्चित क्षण में नहीं हुआ है, क्योंकि उन्हें सनातन और अनादि माना जाता है, अर्थात्, वे अनादिकाल से ही अस्तित्व में हैं और उनका कोई आदि नहीं है।
शिव पुराण और विष्णु पुराण में कहा गया है कि शिव ब्रह्मा, विष्णु और अन्य देवताओं की उत्पत्ति में सहायक रूप से व्यक्त होते हैं, और उनका अनादि स्थान है, जिससे वे सभी देवताओं के पिता भी माने जाते हैं।
इसलिए, हिन्दू धर्म में भगवान शिव का जन्म एक निर्दिष्ट क्षण में हुआ होने की बात नहीं की गई है, और उन्हें अनन्त और अनादि माना गया है।
"देवों का देव" शिव को कहा जाता है
क्योंकि हिन्दू धर्म में वह ब्रह्मा, विष्णु, और शिव - त्रिदेवों में से एक माने जाते हैं, और उनमें उच्चतम और परम देवता होते हैं। "देवों का देव" शब्दार्थ होता है कि वह सभी देवताओं के ऊपर स्थान ग्रहण करते हैं और उनके साथ साकार और निराकार स्वरूप में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, स्थिति और संहार का नियंत्रण करते हैं।
शिव के एक प्रमुख विशेषता यह है कि वह तामसिक प्रकृति के ईश्वर माने जाते हैं और उनके ध्यान, तप, और प्रेम में लीन होने से भक्तों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। उन्हें नीलकंठ, महाकाल, रुद्र, आदियोगी, और पशुपति जैसे नामों से संबोधित किया जाता है, जो उनकी महात्मा को दर्शाते हैं।
शिव का देवों के ऊपर समर्थन का कारण उनके अद्वितीय और अनंत स्वरूप, तामसिक प्रकृति के ईश्वर, और भक्तों के प्रति कृपाशील रूप हैं। उनकी लीलाएं, तपस्या, और ध्यान का मार्ग उन्हें देवता के ऊपर अग्रगण्य बनाता हैं।
शिव की महिमा को विविध धार्मिक और साहित्यिक ग्रंथों में सुंदरता से वर्णित किया गया है। शिव, हिन्दू धर्म में त्रिदेवों में एक हैं और उन्हें महादेव भी कहा जाता है। शिव की महिमा का वर्णन भगवद गीता, पुराण, उपनिषद, कविताएं और भक्ति साहित्य में किया गया है।
महाकाल: शिव को 'महाकाल' कहा जाता है, जिसका अर्थ है 'बड़ा समय' या 'काल का स्वामी'। इससे शिव का समय, सृष्टि, स्थिति और संहार के आदियोगी होने का अर्थ निकलता है।
नीलकंठ: शिव को 'नीलकंठ' कहा जाता है, जिसका अर्थ है 'नीला गला'। इसका कारण है कि शिव ने समुद्र मंथन के समय हालाहल पीने का निर्णय किया था, जिससे उनका गला नीला हो गया।
अर्धनारीश्वर: शिव को 'अर्धनारीश्वर' भी कहा जाता है, जिससे उनका पुरुष और प्रकृति के संयोजन का प्रतीक मिलता है। इससे शिव का साकार-निराकार स्वरूप दर्शाया जाता है।
पशुपति: शिव को 'पशुपति' भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है 'पशुओं के स्वामी'। इससे उनका प्रेम पशुओं और प्राकृतिक जीवों के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
भूतनाथ: शिव को 'भूतनाथ' भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है 'भूतों के स्वामी'। इससे शिव की दया और अनुग्रह का संकेत होता है, जिन्हें वह सभी भूत-प्रेत, देवता और मनुष्यों पर बनाए रखते हैं।
रुद्र: शिव को 'रुद्र' भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है 'क्रोधी' या 'रुदनहारा'। इससे शिव का समय-समय पर विकट रूप धारण करने का संकेत होता है।
शिव को 'आदियोगी' भी कहा जाता है, जिससे उनका सनातन और अनादि स्वरूप स्पष्ट होता है। उन्हें सबसे पहले योगी माना जाता है जो ध्यान और तापस्या में रत रहते हैं।आदियोगी:
शिव की महिमा में इन गुणों के साथ ही उनके लीलाएं, तांत्रिक सिद्धांत, धार्मिक उपदेश, और भक्ति भाव भी समाहित हैं। उन्हें विशेष रूप से महाशिवरात्रि और कार्तिक मास के महीनों में पूजा जाता ह
शिव के अपने सरीर में कई धारणाएं और अलंकार हैं, जो उनकी विशेषता और महत्ता को दर्शाते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख धारणाएं निम्नलिखित हैं:
शूल: शिव का हाथ में एक शूल (त्रिशूल) होता है, जिसका तीन मुख होते हैं। यह शूल त्रिकाल दर्शन को प्रतिष्ठित करता है और सृष्टि, स्थिति और संहार के सिद्धांत को प्रतिष्ठित करता है।
दमरु: शिव के एक हाथ में दमरु (डमरु) होती है, जो नाद का प्रतीक है। इससे अनादि ओंकार का ध्वनि उत्पन्न होता है, जो सृष्टि की आरंभिक शक्ति को दर्शाता है।
गंगा: शिव के जटाओं में गंगा नदी धारण की जाती है, जो उनकी शीतलता, पवित्रता, और अनुग्रह की शक्ति को प्रतिष्ठित करती है।
चंदन: शिव के शरीर पर चंदन का विशेष धारण होता है, जो उनकी तपस्या, संयम और पवित्रता को दर्शाता है।
भस्म: शिव भस्म (राजा भस्म) धारण करते हैं, जो तापस्या, वैराग्य, और मृत्यु की प्रतीक है। इससे जीवन का अनित्यता और मृत्यु की अनिवार्यता का बोध होता है।
गण: शिव के साथ गणपति और कार्तिकेय जैसे गणभक्त भी होते हैं, जो उनके संग रहते हैं और उनकी सेवा करते हैं।
सर्प: शिव के गले में एक सर्प होता है, जिसे वासुकि कहा जाता है। यह सर्प उनकी तपस्या की अधिष्ठाता है और संसार की भयानक गर्त से मुक्ति की ओर प्रवृत्ति को दर्शाता है।
ये धारणाएं शिव के विभिन्न रूपों और गुणों को प्रतिष्ठित करती हैं और उनके भक्तों को उनके महत्त्व का सुस्मरण करने में मदद करती हैं।
शिव को जल चढाने से क्या होता है शिव को जल चढ़ाना, जिसे "शिवाभिषेक" भी कहा जाता है, हिन्दू धर्म में एक प्रमुख पूजा पद्धति है और इसे महत्त्वपूर्ण धार्मिक क्रिया माना जाता है। इस प्रक्रिया में भक्त शिवलिंग को गंगाजल या दूसरे सुधारित जल से स्नान कराता है और फिर उसे विभिन्न पदार्थों से समर्पित करता है। शिव को जल चढ़ाने के कई मान्यताएं हैं और इससे भक्त को आध्यात्मिक और शारीरिक लाभ होता है, जैसे: पवित्रता: शिव को जल चढ़ाने से पूजा करने वाले को पवित्रता का आभास होता है। यह प्रक्रिया भक्त को आत्मा की शुद्धि और शक्ति का अनुभव कराती है। कृतज्ञता और भक्ति: जल चढ़ाने से भक्त अपने ईश्वर के प्रति कृतज्ञ होता है और उसकी भक्ति में वृद्धि होती है। प्रार्थना और आशीर्वाद: जल चढ़ाने से पहले भक्त अपनी प्रार्थनाएं करता है और भगवान से आशीर्वाद मांगता है। इसके माध्यम से भक्त को अपने जीवन के लिए सांत्वना और मार्गदर्शन मिलता है। समर्पण और सेवा: जल चढ़ाने के द्वारा भक्त अपने ईश्वर के प्रति अपना समर्पण प्रकट करता है और सेवा करने का संकल्प लेता है। पुण्य और मोक्ष: शिव को जल चढ़ाने से पुण्य की प्राप्ति होती है और इसके माध्यम से भक्त को मोक्ष की प्राप्ति का समर्थन होता है। शिव को जल चढ़ाने का यह प्रतिष्ठान भक्ति और समर्पण का प्रतीक है और यह भक्त को आध्यात्मिक सफलता की दिशा में मार्गदर्शन करता है।
महाशिवरात्रि का क्या महत्त्व है
महाशिवरात्रि हिन्दू धर्म में एक प्रमुख और महत्त्वपूर्ण त्योहार है, जो भगवान शिव की पूजा और उनकी महिमा को समर्पित है। इस त्योहार का महत्त्व कई प्रमुख कारणों से है:
भगवान शिव का विशेष महत्त्व: महाशिवरात्रि भगवान शिव के तप, साधना, और भक्ति के प्रति समर्पित है। इस दिन भगवान शिव ने नीलकंठ रूप में हालाहल (क्रोध) पीने का कारण बनने के बाद विश्व की रक्षा की थी, जिससे वे महाकाल और नीलकंठ कहे जाते हैं।
तापस्या और व्रत का महत्त्व: महाशिवरात्रि पर भक्त विशेष रूप से व्रत रखते हैं और रात्रि के समय जागरूक रहते हैं। यह तपस्या और आत्म-संयम का समर्थन करता है।
मोक्ष की प्राप्ति: महाशिवरात्रि को मनाने से भक्त को मोक्ष की प्राप्ति की प्रार्थना करने का अवसर मिलता है। इस दिन भक्त भगवान शिव से अपने पापों की क्षमा के लिए प्रार्थना करता है।
सांसारिक समृद्धि: महाशिवरात्रि का पावन और विशेष समय माना जाता है जिसमें भक्तों को धर्म, नैतिकता, और आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में मार्गदर्शन होता है।
नृत्य और संगीत का महोत्सव: महाशिवरात्रि पर भक्तों ने शिव-ताण्डव नृत्य और भजनों के माध्यम से भगवान की महिमा गाने का आयोजन किया जाता है, जिससे तत्पर भक्तों को आनंद मिलता है।
प्राकृतिक शक्तियों का समर्पण: महाशिवरात्रि को वसंत ऋतु के आगमन के साथ मिलाकर मनाने से प्राकृतिक शक्तियों के साथ समर्पण का भाव बढ़ता है। इस त्योहार के दिन गंगा नदी में स्नान करने का भी विशेष महत्त्व है।
इस प्रकार, महाशिवरात्रि एक पवित्र और आध्यात्मिक त्योहार है जो भक्तों को भगवान शिव के प्रति भक्ति, श्रद्धा, और समर्पण की भावना में उत्साहित करता है।
भारत में महादेव का चमत्कार कहा हुआ है
भारत में भगवान शिव के चमत्कारों का वर्णन अनेक पुराणों, ग्रंथों, और स्थलों में किया गया है। यहां कुछ प्रमुख महादेव के चमत्कारों का उल्लेख है:
केदारनाथ मंदिर: केदारनाथ मंदिर उत्तराखण्ड के हिमालय क्षेत्र में स्थित है और यह एक महत्त्वपूर्ण शिव मंदिर है। पुराणों के अनुसार, पांडवों ने महाभारत के युद्ध के बाद शिव की पूजा करने के लिए केदारनाथ में जाकर प्रयास किया था। शिव ने वहां उनकी पूजा स्वीकार की और एक हिरण के रूप में प्रकट होकर उनके सामने आएं थे। इसके बाद, भगवान शिव ने केदारनाथ में अपने ज्यों को शिवलिंग रूप में स्थापित किया है।
मनसा देवी मंदिर: मनसा देवी मंदिर, जो बिहार में स्थित है, उसके संबंध में भी एक चमत्कार की कहानी है। एक किसान ने एक सांप को काट दिया और वह सांप महादेव का स्वरूप बन गया। सांप ने कहा कि उसके लिए मंदिर बनाएं और उसे मिलने आएं, तब उसका सापनाश होगा। मनसा देवी को उनके प्रति भक्ति में इतना विश्वास था कि उन्होंने मंदिर बनवा दिया और उसका सापनाश हो गया।
आमरनाथ यात्रा: आमरनाथ यात्रा जम्मू और कश्मीर के आमरनाथ गुफा में आयोजित होती है जहां भगवान शिव की अत्यंत लोकप्रिय विग्रह, आमरनाथ शिवलिंग, को देखने का अवसर होता है। प्रतिवर्ष, यहां लाखों शिव भक्त यात्रा करते हैं और इस यात्रा में चमत्कार और अनभूत घटनाएं होती हैं जो श्रद्धालुओं द्वारा साक्षात्कृत की जाती हैं।
वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग: वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग, जो जहांगीराबाद, दक्षिण अफ़्रीका में स्थित है, एक अन्य महत्त्वपूर्ण स्थान है जहां भगवान शिव की महादेवी स्वयं नीलकंठ की पूजा की गई थी। यहां कई चमत्कार और अनभूत घटनाएं हुई हैं जो भक्तों के बीच लोकप्रिय हैं।
इन चमत्कारों का वर्णन पुराणों, ग्रंथों, और लोककथाओं में है और इससे ही भारत में महादेव के अद्वितीय और दिव्य स्वरूप की महत
महाकाल शिव को क्यों कहा जाता है
महाकाल शिव को "महाकाल" कहा जाता है क्योंकि यह एक उपासना और साधना का रूप है, जिससे भगवान शिव का अनंत, अकाल, और अपरिच्छिन्न स्वरूप दर्शाया जाता है। "महाकाल" का शाब्दिक अर्थ होता है 'अत्यंत काल' या 'काल के पार', और इसका सीधा संबंध समय के पारे जाने वाले अद्वितीय रूप के शिव से है।
यहां कुछ कारण हैं जिनके कारण शिव को महाकाल कहा जाता है:
अनंत और अकाल: महाकाल का शब्दार्थ 'अनंत' और 'अकाल' को सूचित करता है। शिव को समय के पारे जाने वाले, अनंत और अकाल स्वरूप माना जाता है, जिससे वे सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ होते हैं।
संहारक रूप: महाकाल का रूप शिव के संहारक रूप को दर्शाता है। शिव विष्णु और ब्रह्मा के साथ त्रिदेवों में से एक है और सृष्टि, स्थिति, और संहार के कारण वे 'महाकाल' कहलाए जाते हैं।
तामसिक प्रकृति: महाकाल का शिव में संबंध होता है, जिसे तामसिक प्रकृति के ईश्वर के रूप में जाना जाता है। इसका अर्थ है कि वे संसार के समस्त प्रकार के संहार का धारक हैं और उनका स्वभाव अत्यंत रहस्यमय और अमृत है।
योगीश्वर: शिव को महाकाल कहा जाता है क्योंकि वे सर्वोच्च योगीश्वर हैं और ध्यानयोग में लीन रहकर समस्त ब्रह्माण्ड की सृष्टि, स्थिति, और संहार का निर्माण करते हैं।
भक्ति के प्रेरणास्त्रोत: शिव को महाकाल कहने से भक्तों को भक्ति, निर्वाण, और मोक्ष की प्राप्ति के प्रति प्रेरित होने का संकेत मिलता है।
महाकाल कहलाने से भगवान शिव का अद्वितीय और परम स्वरूप का महत्त्वपूर्ण आभास होता है, जिससे भक्तों को उनके प्रति श्रद्धा और समर्पण बढ़ता है।
महाकाल शिव की तीसरी आँख कैसे उत्पन हुई
महाकाल शिव की तीसरी आँख की कथा हिन्दू पौराणिक ग्रंथों, विशेषकर पुराणों, में सुनी जाती है। इसका सबसे प्रमुख स्रोत शिव पुराण है, जिसमें महाकाल की तीसरी आँख की कथा का वर्णन है।
कथा के अनुसार, एक समय पर्वतराज हिमवान और मेना नामक एक कन्या थीं, जो भगवान शिव की अत्यंत भक्त थीं। मेना की तपस्या और भक्ति ने भगवान शिव को प्रसन्न किया और उन्होंने उससे एक विशेष वरदान मांगा।
भगवान शिव ने मेना से पूछा, "तुम मुझसे क्या चाहती हो?" मेना ने उत्तर दिया, "महादेव, मैं चाहती हूँ कि आप मेरे स्वयं रूप में मेरे पिता हों और मुझे आपके बच्चे की भूमि पर भी अवतरित होने का आशीर्वाद मिले।"
भगवान शिव ने उसकी इच्छा को सुनकर उसे एक विशेष आँख प्रदान की, जिसे तीसरी आँख कहा जाता है। इस रूप में भगवान शिव ने मेना के गर्भ से अवतरित होकर उनकी सन्तान का निर्माण किया।
इस प्रकार, महाकाल शिव की तीसरी आँख का उत्पन्न होना मेना की भक्ति और तपस्या के प्रति उनके प्रतिबद्धता को दर्शाता है और यह भक्तों को शिव की अद्वितीयता और कृपा की महत्ता को समझाता है
शिव को प्रसन्न करने के लिए क्या करना चाहिए
भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए भक्तों को श्रद्धा और भक्ति के साथ कई विधियाँ अपनानी चाहिए। यहां कुछ प्रमुख उपाय हैं जो शिव को प्रसन्न करने में सहायक हो सकते हैं:
शिव लिंग की पूजा: शिव लिंग की पूजा एक प्रमुख तरीका है शिव को प्रसन्न करने का। भक्त शिव लिंग को शुद्ध जल, धूप, दीप, बेलपत्र, बिल्व पत्र, रुद्राक्ष माला, और पुष्प आदि से पूजता है।
महामृत्युंजय मंत्र: महामृत्युंजय मंत्र का जाप करना भी शिव को प्रसन्न करने का एक प्रभावी तरीका है। "ॐ हौं जूं स: भगवते महाकालाय" यह मंत्र भक्तों के बीमारियों से मुक्ति की प्राप्ति के लिए जाना जाता है।
महाशिवरात्रि व्रत: महाशिवरात्रि पर्व के दिन शिव की विशेष पूजा और व्रत का आयोजन करना भी शिव को प्रसन्न कर सकता है।
त्रिपुराशिचक्र पूजा: त्रिपुराशिचक्र पूजा शिव को प्रसन्न करने के लिए एक प्रमुख पूजा विधि है। इसमें तीन शिव लिंगों की पूजा की जाती है।
शिव भजन और कीर्तन: भक्ति भजन और कीर्तन के माध्यम से भी शिव की महिमा गानी जा सकती है, जिससे भक्त का मन शिव के प्रति प्रेमभाव से भर जाता है।
ध्यान और ध्यान: शिव के ध्यान और मनन से भक्त को शान्ति, आनंद, और आत्मा के साथ संबंध स्थापित होता है।
दान और सेवा: गरीबों की सेवा करना और दान करना भी शिव को प्रसन्न करने का एक उत्तम तरीका है।
शिव को प्रसन्न करने के लिए इन उपायों को नियमित रूप से अपनाना चाहिए, जो भक्तों को आध्यात्मिक और मानवीय सफलता की दिशा में मार्गदर्शन कर सकते हैं।
शिव को बेल पत्र क्यों चढ़ाया जाता है
बेल पत्र को भगवान शिव को चढ़ाने का प्राचीन परंपरागत तरीका माना जाता है और इसमें अत्यंत धार्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व होता है। यहां कुछ कारण हैं जिनके कारण भक्त बेल पत्र को शिवलिंग पर चढ़ाते हैं:
भक्ति और समर्पण: बेल पत्र को चढ़ाना शिव के प्रति भक्ति और समर्पण का प्रतीक है। यह भक्त द्वारा उनके ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना को दर्शाता है।
ब्रह्मा, विष्णु, और महेश्वर का प्रतीक: बेल पत्र को त्रिदेवों के प्रतीक के रूप में भी देखा जाता है। यह ब्रह्मा, विष्णु, और महेश्वर की प्रतिष्ठा को बढ़ाता है और शिवलिंग पर बेल पत्र का चढ़ाना त्रिदेवों की एकता का प्रतीक होता है।
सत्य, रज, और तम: बेल पत्र के तीन पत्तियाँ सत्य, रज, और तम गुणों को प्रतिष्ठित करती हैं, जिन्हें त्रिगुणात्मक शक्तियों का प्रतीक माना जाता है।
प्राकृतिक साधना: बेल पत्र को प्राकृतिक साधना का अंग माना जाता है और इससे आत्मा के साथ संबंध स्थापित करने का प्रयास किया जाता है।
आत्मा का प्रतीक: बेल पत्र को आत्मा का प्रतीक माना जाता है, और इसके चढ़ाने से भक्त अपनी आत्मा के साथ शिव के संबंध में एकता की अनुभूति करता है।
विशेष प्रिय: शिव को बेल पत्र बहुत अधिक प्रिय हैं और उन्हें प्रसन्न करने के लिए इसका चढ़ाना कहा जाता ह
भगवान शिव को "भोलेनाथ" कहा जाता है क्योंकि इस नाम का अर्थ होता है "भोला" या "सरल"। इस नाम से शिव की सरलता, निराकार स्वभाव, और भक्तों के प्रति सादगी को दर्शाया जाता है। यह नाम शिव की महत्ता और उनके भक्तों के साथ उनके सुलहकारी स्वभाव को बयान करता है।
भगवान शिव को "भोलेनाथ" कहा जाता है क्योंकि उनका विशेष ध्यान भक्तों की पूरी भावना को देखते हुए होता है और वह उन्हें सरलता और प्रीति से ग्रहण करते हैं। इसलिए, वे अपने भक्तों के प्रति सहानुभूति और आदर्श भावना के कारण "भोलेनाथ" कहलाए जाते हैं।
"भोला" शब्द का अर्थ है भोला मनसा यानी सीधा-सादा और निर्मल मनवाला। भगवान शिव को भक्तों के प्रति इस प्रकार का सरल और सहानुभूत भाव दिखाता है कि वे उनकी पूजा, प्रार्थना और आराधना को सीधे दिल से स्वीकार करते हैं।
इस प्रकार, "भोलेनाथ" एक भक्तिमय और साधकों के लिए सार्थक नाम है, जो शिव के प्रति सरल भावना और विश्वास को दर्शाता है।
शिव अपने अंग में राख क्यों लगते है
भगवान शिव जिन्हें "भैरव" भी कहा जाता है, वे अपने अंगों में राख लगाने के लिए एक प्रमुख कारण और सिद्धांत के आधार पर जाने जाते हैं। यह प्रथा सांस्कृतिक और धार्मिक संस्कृति में महत्त्वपूर्ण है और इसमें अनेक तात्कालिक और रौद्र अर्थ हो सकते हैं। यहां कुछ मुख्य कारण हैं:
ताप साधना: शिव जी को ताप साधना की परम्परा से जोड़ा जाता है। विशेषकर अर्द्धनारीश्वर रूप में, जिसमें एक पोषण स्वरूप (शक्ति) और एक अर्थनारीश्वर स्वरूप (शिव) दोनों होते हैं, उन्होंने ताप साधना की। राख इस साधना का प्रतीक है, जिससे उन्होंने आत्मा की प्राप्ति के लिए आत्मा को जल में ताप के अभ्यास में लगाया।
वैराग्य और त्याग: शिव का रौद्र स्वरूप वैराग्य और त्याग का प्रतीक है। राख लगाने से वह त्याग की भावना का पालन करते हैं और संसार से अलग होते हैं।
शिव के अस्तित्व के प्रति समर्पण: राख लगाना शिव के अस्तित्व और उनके अद्वितीय स्वरूप के प्रति अपने समर्पण का प्रतीक हो सकता है। इससे भक्त शिव के साथ अपना सम्पूर्ण समर्पण व्यक्त करता है।
ध्यान और तात्कालिकता: राख का लगाना एक ध्यान और तात्कालिकता का प्रतीक हो सकता है, जिससे भक्त शिव के साथ एकता और समय-बारीकी की भावना बनाए रखता है।
भगवान शिव जो नीलकंठ (नीला गला) कहलाए जाते हैं, उनके गले में नाग (साँप) का हूंकारा धारण किया जाता है और इसे विषनाग (सर्पराज) कहा जाता है। इसमें कई महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक, धार्मिक और तात्कालिक अर्थ हो सकते हैं:
शक्ति का प्रतीक: नाग शिव के गले में एक शक्ति का प्रतीक हो सकता है। नाग को अद्वितीयता, अनंतता, और अज्ञेयता का प्रतीक माना जाता है और यह भी शक्ति का स्रोत हो सकता है।
अनुग्रह और दया: भगवान शिव का हृदय दयालुता और अनुग्रह के लिए प्रसिद्ध है। नाग को उनके गले में धारण करते हुए यह दिखाया जा सकता है कि उनकी दयालुता और अनुग्रह सभी की रक्षा करने में बनी हुई है।
कालसर्प दोष का निवारण: कुछ लोग इसे कालसर्प दोष से संबंधित मानते हैं और इसे धारण करने से इस दोष का निवारण हो सकता है, जो जन्मकुंडली में किसी व्यक्ति को हो सकता है।
सर्प या नाग लोक का आधार: नाग को सर्प या नाग लोक का एक प्रतीक भी माना जाता है, और इससे यह संकेत मिलता है कि भगवान शिव समस्त लोकों के अधिपति हैं और उनके परम आधार पर सभी सांसारिक और आध्यात्मिक प्रक्रियाएँ घटित होती हैं।
अहंकार और अज्ञान के प्रति निर्मल भाव: नाग का सर्प रूप अज्ञान और अहंकार का प्रतीक हो सकता है और शिव के गले में इसे धारण करने से यह दिखाया जा सकता है कि वे ये गुणों को पूरी तरह से नष्ट करते हैं।
इस प्रकार, भगवान शिव के गले में नाग को धारण करने में विभिन्न आध्यात्मिक और सांस्कृतिक सांदर्भिकताएं हो सकती हैं, और इसे विभिन्न तात्कालिक परंपराओं और श्रद्धावानों के विभिन्न दृष्ट
शिव अपने अंग में बघवा के खाल क्यों धारण किये हुए है
भगवान शिव जो महाकाल, रुद्र, भैरव, आदि के रूप में पूजे जाते हैं, उन्हें अपने अंग में बघवा (बगुला) के खाल को धारण करते हुए देखा जा सकता है। यह कांस्य (ब्रास) के बगुला का खाल होता है जिसका अर्थ होता है 'हेरफेर करनेवाला' या 'भ्रमणकारी'। इस प्रतीक के पीछे कई महत्त्वपूर्ण सिद्धांत हो सकते हैं:
आत्म-विचार (Self-Reflection): बगुला के खाल का प्रतीक आत्म-विचार और अंतर्मुखता का हो सकता है। भगवान शिव के इस रूप में यह दिखता है कि वे सदैव अपने आत्मा के साथ जुड़े रहते हैं और आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हैं।
भ्रमण (Wandering): बगुला का खाल भ्रमण को दर्शाने में आता है, जो शिव के एक महत्त्वपूर्ण गुण को सूचित करता है। शिव भक्ति में, भक्त भी अपने मार्ग में साधना के लिए भ्रमण करता है और अपनी आत्मा की खोज में यात्रा करता है।
माया और संसार के पार (Beyond Illusion and World): शिव जो निराकार और अद्वितीय हैं, उनका बगुला के खाल को धारण करना संसार के मोह और भ्रांतियों से पार पहुंचने का संकेत हो सकता है। इससे भक्त को यह बोध होता है कि शिव संसारिक बाधाओं और माया को पार करने के लिए एकमात्र मार्ग हैं।
साधना का प्रतीक: बगुला के खाल की धारणा विशेषकर तपस्या और साधना के लिए समर्पितता को दर्शाती है। इससे भक्त को यह सिखने में मदद मिलती है कि साधना में समर्पण और आत्म-नियंत्रण के साथ प्रगटि हो सकती है।
इस प्रकार, भगवान शिव के बगुला के खाल की धारणा से अनेक आध्यात्मिक और धार्मिक उपदेश प्राप्त हो
➡ गीत - शंकर भोला भंडारी
➡ गायक - सुनील सिहोरे
➡ गीतकार - पूरन साहू
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ॐ नमः शिवाय
शंकर भोला भंडारी गर पहिरे डोमि कारी
तोर लीला हावय भारी
उड़ान -" ये गा भोला गा भोला गा भोला गा---------आ
नादिया वाला गा "-२
देवन मा --------आ भोला गा--------आ आ आ
भोला गा
देवन मा तै महादेवा ,देवन मा तै महादेवा
तिरसुल डमरू धारी
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अंतरा -1
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गौरी नाथ कैलाश पति तोर महिमा हे मनभावन
चाडो मुड़ा तोर पूजा मनाथे सावन महीना पावन
उड़ान -" बूढ़ा देवा हे हर हर जय अवघड़िया बम शंकर
अंग चूपरे.................... ऐ
भोला गा.....................आ आ आ
भोला गा
अंग चूपरे राख मरघट के -२
हे बघांबर धारी
शंकर भोला भंडारी गर पहिरे डोमि कारी
तोर लीला हावय भारी
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अंतरा-2
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सिधवा बर तै सिधवा भोला बहिएहा बर तै बहिएहा
दानी म तै जब्बर दानी काम देव के जीतहिहा
उड़ान-" मरघट म धूनी रमाये गाजा के धुआं उड़ाये
अलबेला .................... आ
भोला गा.....................आ आ आ
भोला गा
अलबेला शिव अविनाशी -२
तारे तै त्रिपुरारी
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अंतरा -3
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कहव नहीं देवन कस तोला मैं हर जहर पिए बर
देदे दर्शन तै मोला हे भोला गंगाधर
उड़ान-" जय हो भूतवा के राजा मै सुमिराव तोला आजा"
प्रेम दास पुरन .................. न
भोला गा.....................आ आ आ
भोला गा
प्रेम दास पुरन के भोला -2
करलेबे चिनहारी
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